Saturday, September 15, 2012

बेवफा ज़िन्दगी



सोचा था ज़िन्दगी महबूब है मेरी,
इश्क कर बैठा दीवाने से |
तन्हाई से भर दिया मैखाने को,
और नशा हो गया खाली पैमाने से |

रूठा था अपने ही खुशी से,
डरता था मैं मुसकुराने से |
सासें चल रही थी गुम्नाम अंधेरो में,
और मरता था मैं दिल को बहलाने से |

ज़रुरत थी मुझे उस साए की,
जिसकी ख़ामोशी गूंजती थी मेरे अरमानो में |
चलती थी बनके मेरा हमसफ़र,
हर एक खौफनाक तूफानों में |

1 comment:

Anonymous said...

राहें और बनती रहती है मुसाफिर
अपना ही है साया.. कोई गैर नहीं
प्यार करो तूफानों से हस दो दोराहे पर भी
गमनशीं ही सही पर शराब नहीं रूठती मैखाने से